अद्वैयता की बात भी है एक,
और एक कहानी दो ‘मैं’ की
अद्वैयता नही है आसान कहीं,
दो मैं पाता हर कोई
मैं हूँ वो जो सुनता सब की
मैं ही वो जो सुनूँगा नहीं
मैं हूँ वो जो दिल से बोले
मैं हूँ वो जो बुजदिल भी
बात बड़ी अंजानी सी है
बात मगर है एक सटीक
मेरी नहीँ कोई एक है गाथा
मैं हूँ वक़्त का ही प्रतीक
वक़्त बदलता, मैं भी बदलता
वक़्त के साथ बहता कहीं
बात कई करता मैं रहता
बात कहीं पर कुच्छ नहीं
कौन से मैं से तुम मिलोगे
कौन सा मैं तुम्हे भा जाएगा?
मैं वो भी जो नर्म हृदय हूँ
मैं वो भी जो कुच्छ ना समझा
मैं खुद से भी मिल नही पाता
मैं खुद को ही ढूंड रहा
मैं और मैं की इस जंग में
मैं को शायद खो बैठा